
Bihar Chunav 2025: बिहार जातिवादी राजनीति के लिए बदनाम रहा है. पर, एक सच यह भी है कि बीते 20 वर्षों में नीतीश कुमार ने इस मिथ को तोड़ा है. यह कहना बेमानी नहीं कि नीतीश किसी एक जाति के नेता नहीं हैं. अगर ऐसा होता तो 13 करोड़ की आबादी में 10 प्रतिशत से कम पर सिमटे उनके बुनियादी समीकरण- कुर्मी और कोइरी (लव-कुश) के वोट के सहारे वे दो दशक तक सीएम नहीं रहते. नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू को मिलने वाले वोट भी करीब 16 से 23 प्रतिशत के बीच रहे हैं, जो लव-कुश समीकरण के वोटों से दोगुने-तिगुने हैं और साबित करते हैं कि नीतीश कुमार ने बिहार में जातिवाद की राजनीति खत्म कर दी है.
Bihar Chunav 2025: बिहार के बारे में यह आम धारणा रही है कि जाति के बिना राजनीति की बात सोची भी नहीं जा सकती. आरजेडी की राजनीति का तो आधार ही जाति रही है. इसके लिए आरजेडी ने मुस्लिम-यादव (M-Y) का जातीय समीकरण 1990 के दशक में बनाया और आज भी उसकी यह मानसिकता नहीं बदली है. तेजस्वी यादव भले A टू Z (सभी जातियों-धर्मों) और बाप (BAAP) की बात करते हैं, लेकिन वे भी जानते हैं कि M-Y के बिना आरजेडी की राजनीति चल ही नहीं सकती. नीतीश कुमार को भी आरंभ में कुर्मी-कोइरी (लव-कुश) जैसा जातीय समीकरण ही आगे बढ़ने का आधार बना, पर नीतीश ने कालांतर में बिहार को इस तरह की राजनीति से मुक्त किया. बीते 20 सालों से उनका यह प्रयास जारी है.
कुर्मी-कोइरी से आगे निकले नीतीश
नीतीश कुमार के बारे में यह कहना बेमानी नहीं कि वे किसी एक जाति के नेता नहीं हैं. अगर ऐसा होता तो इकाई अंक के प्रतिशत तक सिमटी उनकी जाति कुर्मी और इकाई अंक में सिमटा उनका मददगार कोइरी समाज की आबादी सम्मिलित रूप से 10 प्रतिशत से भी कम है, जबकि नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू को मिलने वाले वोट करीब 16 से 23 प्रतिशत के बीच रहे हैं. यह सिलसिला फरवरी 2005 में उनके राजनीतिक उदय के वक्त से ही जारी है. नीतीश कुमार ने आहिस्ता-आहिस्ता जाति की राजनीति बदली और अलग-अलग जातियों में अपने पाकेट वोट बैंक तैयार कर लिए. दलितों को दलित-महादलित श्रेणी में बांट कर उनके लिए योजनाएं बनाईं. अगड़े-पिछड़े मुसलमानों में पिछड़े (पसममांदा) मुसलमानों के लिए अलग से योजनाएं बना कर नीतीश ने अपने को उनके हितैषी के रूप में स्थापित किया है. महिलाओं की आधी आबादी को आरक्षण और दूसरे किस्म का लाभ देकर अपने पाले में किया है. बच्चियों को पढ़ाई के लिए साइकिल, पोशाक और प्रोत्साहन राशि देकर उन्हें अपना भविष्य का वोटर बना लिया है.
जेडीयू के वोट 15 से 23 प्रतिशत
जरा, जेडीयू को मिलने वाले वोटों के प्रतिशत पर गौर करें. फरवरी 2005 के विधानसभा चुनाव में जेडीयू को 14.55 प्रतिशत वोट मिले थे. अक्टूबर 2005 में यह बढ़ कर 20.46 प्रतिशत हो गया. 2010 में 22.58 प्रतिशत, 2015 में 16.8 और 2020 में 15.48 प्रतिशत वोट जेडीयू को मिले. जेडीयू के आरंभ में लव-कुश समीकरण के 8.08 प्रतिशत (कुर्मी के 2.87 और कोइरी-कुशवाहा के 4.21 प्रतिशत) ही आधार वोट थे. पर, नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले जेडीयू को न्यूनतम 15.48 और अधिकतम 22.58 प्रतिशत वोट बीते 20 साल में मिलते रहे हैं तो निश्चित ही ये वोट दूसरी जातियों के रहे होंगे. नीतीश की अपनी जाति का वोट सिर्फ 2.87 प्रतिशत ही है. भाजपा के साथ रहना भी उनके वोट बैंक के विस्तार का कारण रहा है. सवर्णों के वोट पारंपरिक तौर पर भाजपा को मिलते रहे हैं. उसके साथ चुनाव लड़ने पर जेडीयू की पहुंच भी सवर्णों में बनी है.
मिलता रहा है सभी जाति का साथ
चुनावी संदर्भ में देखें तो नीतीश कुमार अपनी जाति के नेता कभी नहीं रहे. उन्होंने बड़ी ही चालाकी से अपना वोट बैंक हर जाति में बनाया है. अगर वे कहते हैं कि सबके लिए काम करते हैं तो इसमें कोई संदेह नहीं. उनकी स्वीकार्यता लव-कुश समीकरण वाले वोटरों और सवर्णों में जितनी है, उतनी ही दलित, मुस्लिम और दूसरी पिछड़ी-अति पिछड़ी जातियों में भी है. उन्होंने अलग-अलग तरीके से कई किस्म के लाभ देकर बड़े पैमाने पर वोटरों को लाभुक बना लिया है. नीतीश कुमार ने महिलाओं को तो अपना मुरीद बनाया ही है, अब करोड़ से अधिक घरेलू बिजली उपभोक्ताओं को 125 यूनिट बिजली फ्री देकर उन्हें अपने जाल में फंसा लिया है. सामाजिक सुरक्षा पेंशन की राशि 400 से बढ़ा कर नीतीश ने 1100 रुपए मासिक कर दिया है. इससे 1.12 करोड़ लोग नीतीश के यकीनन शुक्रगुजार होंगे. यानी 65 लाख लोगों के नाम काटने के बाद 7.24 करोड़ वोटर बिहार में हैं. सीधे लाभ पहुंचा कर नीतीश ने इनमें करीब 2.25 करोड़ लोगों पर जाल फेंक दिया है. यानी तिहाई वोटरों तक नीतीश ने सीधी पहुंच इन दो योजनाओं के मार्फत ही बना ली है.
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BJP का साथ सुहाता है नीतीश को
अपने कार्यकाल के 20 साल में नीतीश कुमार को अगर सबसे अधिक लाभ किसी के साथ मिला तो वह है भाजपा. समता पार्टी के समय से ही नीतीश कुमार के साथ भाजपा खड़ी है. इस दौरान भाजपा ने भले अपने विकास की बात नहीं सोची, लेकिन नीतीश को आगे बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. लगातार 15 साल तक भाजपा के सुशील कुमार मोदी नीतीश मंत्रिमंडल में डेप्युटी सीएम रहे. तब तक भाजपा बिहार में जेडीयू की पिछलग्गू पार्टी ही बनी रही. भाजपा का यह स्वभाव 2020 में भी नहीं बदला, जब उसकी सीटें जेडीयू से अधिक आईं. नैतिक आधार पर नीतीश कुमार ने कम सीटों के कारण सीएम बनने से मना किया तो भाजपा ने गठबंधन धर्म की याद दिला कर उन्हें सीएम बना दिया. दरअसल चुनाव के दौरान भाजपा ने घोषणा की थी कि सीटें अधिक आने पर भी वह नीतीश को ही सीएम बनाएगी. अब तो आरजेडी के लिए नीतीश जितने अपरिहार्य हैं, उतने ही भाजपा के लिए. दोनों हमेशा इस फिराक में रहते हैं कि नीतीश का सान्निध्य न छूटे.