बिहार की ‘कट्टा कथा’! PM मोदी चुनाव प्रचार में बार-बार क्यों बोलते हैं यह शब्द

Katta poltics in Bihar: बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में कट्टा शब्द काफी चलन में आ गया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी जनसभाओं में लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी की सरकारों के दौर का जिक्र करने के लिए बार-बार कट्टा शब्द प्रयोग कर रहे हैं. आइए जानते हैं कट्टा की पूरी कथा.

पटना: बिहार चुनाव 2025 में यूं तो कई नये नारों और मुद्दों पर बात हो रही है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी ‘कट्टा’ शब्द को चर्चा में ले आए हैं. पीएम मोदी जनसभाओं में लालू प्रसाद यादव की पार्टी आरजेडी को संबोधित करने के लिए कट्टा शब्द बार-बार बोल रहे हैं. वह लगातार बिहार की जनता से अपील कर रहे हैं कि कट्टे के दम पर सरकार चला चुकी आरजेडी, कांग्रेस और वामदलों को हर हाल में रोकें.


पीएम मोदी की जनसभाओं में कट्टे का जिक्र
30 अक्टूबर को मुजफ्फरपुर की जनसभा में पीएम मोदी कहा कि कट्टा, क्रूरता, कटुता, कुशासन और करप्शन जंगलराज की पहचान है. यही आरजेडी की पहचान है. यही उनके साथियों की भी पहचान बन गई है. इसके बाद पीएम मोदी ने 2 नवंबर को आरा की रैली में कहा कि आरजेडी ने कांग्रेस की कनपटी पर कट्टा सटाकर मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित कराया. इसके अलावा बीजेपी की सोशल मीडिया टीम की ओर से जारी विज्ञापनों में भी लगातार कट्टा शब्द के जरिए लालू प्रसाद यादव और उनकी पत्नी राबड़ी देवी की सरकारों का जिक्र किया जा रहा है.


बिहार चुनाव में कट्टा शब्द का प्रयोग इतना ज्यादा होने के बाद नई जेनरेशन के लोगों को उत्सुकता हो रही है कि आखिर ये कट्टा शब्द कहां से चलन में आया. कट्टा सबसे पहले कहां बना. इस देशी हथियार को समाज के बीच लाने की नौबत ही क्यों आई. ऐसे तमाम सवाल हैं जो लोगों के मन में उठ रहे हैं. आइए जानते हैं बिहार में कट्टा की कथा.

1990 के दशक में या उससे बाद जन्में लोगों को फिल्मों या वेबसीरीज के जरिए कट्टा शब्द से रूबरू होने का मौका मिला. कट्टा को युवाओं के बीच चर्चित बनाने में मनोज वाजपेयी की फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर और पंकज त्रिपाठी की वेब सीरीज मिर्जापुर का बड़ा रोल है. इसके अलावा बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड के अपराध की पृष्ठभूमि पर बनी तमाम वेब सीरीज में कट्टा को धड़ल्ले से दिखाया गया.

बाहुबली अशोक महतो की लाइफ जर्नी से प्रेरित वेब सीरीज ‘खाकी द बिहार चैप्टर’ का गाना ‘ठोक देंगे कट्टा कपार में आइए ना हमरे बिहार में’ ने लोगों के कॉलर ट्यून और सोशल मीडिया रील्स तक कट्टा शब्द को पहुंचा दिया. उत्तर प्रदेश और बिहार में अगर कोई अपराध जगत में एंट्री करता है तो उसका सबसे पहले कट्टा से ही वास्ता पड़ता है. यूं कहें कि बिहार और उत्तर प्रदेश में कट्टा बेहद कॉमन है.


बिहार के मुंगेर से समाज में आया कट्टा
बिहार का ऐतिहासिक शहर मुंगेर कट्टा की जन्मस्थली है. कट्टे की यह कहानी अपने आप में बहुत इंटरेस्टिंग है. उससे भी ज्यादा रोमांचक है कट्टे की कहानी और बिहार के अपराध जगत में कट्टे का गठजोड़. अंग्रेजों के जमाने से भी पहले से मुंगेर का रिश्ता हथियारों से रहा है। इतिहास के पन्ने पलटने पर पता चलता है कि अंग्रेज जब भारत आए तो उस जमाने में उनके पास कई तरह के बंदूक, राइफल और रिवॉल्वर हुआ करते. वहीं ज्यादातर भारतीयों के पास भाला, तलवार, तीर-धनुष जैसे पारंपरिक हथियार थे. ऐसे में अंग्रेजों का सामना करने के लिए मीर कासिम ने अपने हथियार कारीगरों से कहकर पहली बार कट्टा बनवाया था.


बदलते दौर के साथ मुंगेर में भी बंदूर का कारखाना अप टू डेट होता चला गया. फिलहाल मुंगेर बंदूक कारखाना में लेटेस्ट फाइव शाट पंप एक्शन गन तैयार होते हैं. सरकारी कारखानों में काम कर चुके कारीगर मुंगेर ही नहीं, बल्कि पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, झारखंड सहित देश के कई हिस्सों में जाकर अवैध रूप से हथियार का निर्माण करते हैं.

मुंगेर में कारीगर पीढ़ियों से हथियार बनाते आ रहे हैं. एक समय था जब मुंगेर के मेले में एक रुपये में तमंचा और कट्टे मिल जाया करते थे. बिहार और आडिशा के गजेटियर के अनुसार 19वीं सदी से पहले मुंगेर में ऑर्म्स की पांच दुकानें थी, जहां 10 से लेकर 50 रुपये में देसी हथियार मिल जाया करते थे.


मुंगेर में बंदूक कारखाने बंद होने के बाद बनने लगे अवैध कट्टे
कभी मुंगेर में बंदूक बनाने वाली 64 यूनिट थी. इस शहर में हर दिन 2000 बंदूकें बना करती थी. बंदूक के कारखानों में 1500 कारीगर काम करते थे. उस समय तक इन बंदूकों के खरीदार थे. बड़े-बड़े पैसे वाले लोग राजा, जमींदार और इन जैसे लोग जो अपनी सत्ता चलाने के लिए तमंचे और कट्टे का भरपूर यूज करते. बाद में राजनीति और इससे जुड़े लोगों के बीच हथियारों की भारी डिमांड होने लगी थी.

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1970 और 80 के दशक में कारखाने बंद होने लगे. कारखाने बंद हुए तो कारीगरों का रोजगार छीन गया और इन कारीगरों के पास जो हुनर था उसका इस्तेमाल वह खुलेआम बाहर कर नहीं सकते थे. ऐसे में उन्होंने अवैध तरीके से हथियार बनाकर बेचना शुरू कर दिया, क्योंकि बात पेट की थी. इस तरह मुंगेर में तमंचे बनाने के अवैध कारखाने चल निकले. बाजार में हथियारों के नए खरीदार भी आ गए थे. यह वही समय था जब बिहार में राजनीति बदल रही थी. छात्र आंदोलन से नए-नए नेता निकल रहे थे. नए नेता पुराने बड़े-बड़े नेताओं को चैलेंज कर रहे थे.

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